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फिल्मोत्सव जैसे कार्यक्रम अवचेतन हो चुके क्षेत्रीय सिनेमा के लिए संजीवनी : यशपाल

Written by जयश्री राठौड़ कुरुक्षेत्र। विश्व पटल पर हरियाणा की छाप छोड़ चुके जाने माने अभिनेता यशपाल शर्मा ने कहा कि ऐसे फिल्मोत्सव ही अवचेतन हो चुके क्षेत्रीय सिनेमा के लिए संजीवनी बन चुके हैं। वे आज जनसंचार एवं मीडिया प्रौद्योगिकी संस्थान द्वारा आयोजित मीडिया इंटरनेशनल फिल्म फैस्टीवल के अवसर पर आर के सदन में छात्र-छात्राओं से मुखातिब हो रहे थे। उन्होंने कहा कि प्रदेश में सीने कल्चर के विकास के लिए युवाओं को ही आगे आना होगा। जब तक क्षेत्रीय सिनेमा इन युवाओं में नहीं पनपेगा तब तक हमें फिल्मोत्सव जैसे कार्यक्रम करते रहना होगा। युवाओं के पास नव सोच है और इसे क्रियांवय करने में अपनी अहम भूमिका निभानी होगी। युवाओं को इस क्षेत्र में अभी संघर्ष करने की आवश्यता है ताकि राष्ट्रीयकरण में वे अपनी अहम भूमिका का निर्वाह कर सकें। शर्मा ने बताया कि हमारा उद्देश्य हर बार कुछ नया पेश करने का होता है। अपने अनुभव  छात्र-छात्राओं से बाटते हुए अभिनेता ने बताया कि अपने शुरुआती दौर में वे पहले रंगकर्मी बन फिल्मों में आना चाहते थे पर वे सीधे ही फिल्मी दुनिया से मौका मिलने पर वे इस ओर चल पड़े थे। शर्मा न

हमराह

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 चमक रहा हु बस तेरे तमुस्कुराने से,  कुछ नही चाहिए हमे अब जमाने से।  तडपते थे उदास होकर हम अकेले से,                    मिला है फिर सुकूने दिल तेरे आने से,  कुछ नही चाहिए हमे अब जमाने से।   बेरंग था गुलिस्तां दिल के आशिया मे, महकी है अब दुनिया मेरी अरमानो से, कुछ नही चाहिए हमे अब जमाने से। नही होना उदास तुम कभी ए आबिद बहुत है जो भी मिला दिल लगाने से। कुछ नही चाहिए हमे अब जमाने से। आबिद गोरखपुरी 

हमराह

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 चमक रहा हु बस तेरे तमुस्कुराने से,  कुछ नही चाहिए हमे अब जमाने से।  तडपते थे उदास होकर हम अकेले से,                    मिला है फिर सुकूने दिल तेरे आने से,  कुछ नही चाहिए हमे अब जमाने से।   बेरंग था गुलिस्तां दिल के आशिया मे, महकी है अब दुनिया मेरी अरमानो से, कुछ नही चाहिए हमे अब जमाने से। नही होना उदास तुम कभी ए आबिद बहुत है जो भी मिला दिल लगाने से। कुछ नही चाहिए हमे अब जमाने से। आबिद गोरखपुरी 

िकरकक

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क्या र्है कवि लोग कहते है क्या होते है कवि,ये कुछ नही करतें है। सिर्फ लिखते है,आपस मे सुनाते है,और वाह वाही लुटाते है। उनहे दुनिया से कोइ सरोबार नही, बस कविता मे जतलाते है। लेकिन सच ये है कि ये कवि अपनी रचना के जरिए अपना फर्ज निभाते है। समाज मे घट रही हर घडी का दस्तावेज बनाते है। जिनसे प्ररेणा लेकर कुछ लोग आगे आते है,और  समाज के हित मे कुछ कर  समाजसेवी कहलाते है। जब कोइ इंसान दुनिया के जंजालों से हो परेशान, उसे कविता के जरिए अपनी बात कहने का हुनर सिखाते है। अगली पीढी के बेहतर निर्माण के लिए ये कवि,  कविताओं के जरिए स्ंसकार जुटाते है। कवि सुनने सुनाने कि प्रथा से ऐसा माहोल बनाते है, जहॉ लोग सब झंझट भूल मानसिक शांति पाते है। भटक जाते है जो लोग दुनिया कि भीड मे, कवि उनहे भी रास्ता दिखाते है। अब रही बात कुछ ना करने कि तो, ये कवि ही कुछ करने के ढेरों रास्ते बतलाते है समाज मे शांति,सौहार्द,चिेतन, जिम्मेदारी,और प्रेम कि कोंपलें खिलाते है। आबिद गोरखपुरी
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युनूस खान 22, 2011 घुंघरू टूट गए: साब्ररी ब्रदर्स के मक़बूल अहमद साबरी की याद में एक बुरी ख़बर आई है। जाने-माने क़व्‍वाल मक़बूल अहमद साबरी का बुधवार 21 सितंबर को साउथ अफ्रीक़ा में इंतकाल हो गया है। अफ़सोस की बात ये है कि वो बहुत जल्‍दी चले गए। महज़ 66 की उम्र में।  मेरे बचपन की कई यादें मक़बूल अहमद साबरी से जुड़ी हुई हैं। जिस पृष्‍ठभूमि और बुंदेलखंड के जिस इलाक़े से मैं आता हूं--वहां के गांवों में...मेरे अपने पैतृक गांव में पिछली कुछ पीढियां 'साबरी ब्रदर्स' की क़व्‍वालियां सुनते सुनते बड़ी हुई हैं। क़व्‍वालियों से मेरा निजी तौर पर इतना गहरा नाता नहीं रहा है। पर फिर भी ये मेरे बचपन का एक अहम हिस्‍सा थीं। आप  समझ सकते हैं कि वो फिलिप्‍स के ''लेटे हुए रिकॉर्डर'' का ज़माना था। बाद में टू-इन-वन का आगमन भी हुआ। और तब जब भी हिंडोरिया गांव जाना होता--तो वहां घरों में साबरी ब्रदर्स बजते। सुबह-सुबह भी बजते। दोपहर को भी और रात को भी। लोग 'दमोह', 'छतरपुर' और 'जबलपुर' जैसे शहरों में जाकर ये कैसेट जमा करते। उनकी कॉपीज़ करवाते। उन दिनों य
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